योगदर्शन में पांच प्रकार के क्लेश :-
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश।
इनमें अविद्या ही बाकी चार क्लेशों की जननी है।
१:- अविद्या- चार प्रकार की है।
एक-
नित्य को अनित्य तथा अनित्य को नित्य मानना, शरीर तथा भोग के पदार्थों को ऐसे समझना तथा व्यवहार करना कि जैसे ये सदा रहने वाले हैं।
आत्मा, परमात्मा तथा सत्य, न्याय आदि गुणों व धर्म को ऐसा मानना कि जैसे ये सदा रहने वाले नहीं हैं।
दूसरा-
व अपवित्र को पवित्र तथा पवित्र को अपवित्र मानना, नदी , तालाब, बावड़ी आदि में स्नान से या एकादशी आदि के व्रत (फाके) से समझना कि पाप छूट जाएंगे। सत्यभाषण, न्याय, परोपकार, सबसे प्रेमपूर्वक बर्तना आदि में रूचि न रखना।
तीसरा-
दु:ख के कारण को सुख का कारण तथा सुख के कारण को दु:ख का कारण मानना- काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, ईर्ष्या, द्वेष तथा विषय वासना में सुख मिलने की आशा करना। प्रेम, मित्रता, सन्तोष, जितेन्द्रियता आदि सुख के कारणों में सुख न समझना।
चार-
जड़ को चेतन तथा चेतन को जड मानना, पत्थर आदि की पूजा ईश्वर पूजा समझना तथा चेतन मनुष्य, पशु , पक्षी आदि को दु:ख देते हुए स्वयं जरा भी महसूस न करना कि जैसे वे निर्जीव हों।
२:- अस्मिता-
जीवात्मा और बुद्धि को एक समझना अस्मिता है। अभिमान के नाश होने पर ही गुणों के ग्रहण में रूचि होती हैं।
३:- राग-
जो सुख संसार में भोगे हैं, उन्हें याद करके फिर भोगने की इच्छा करना राग कहलाता है। हर संयोग के पश्चात् वियोग होता है- जब ऐसा ज्ञान मनुष्य को हो जाता है तब यह क्लेश मिट जाता है।
४:- द्वेष-
जिससे दु:ख मिला हो उसके याद आने पर उसके प्रति क्रोध होता है, यही द्वेष है।
५:- अभिनिवेश-
सब प्राणियों की इच्छा होती है कि हम सदा जीवित रहे, कभी मरे नहीं, यही अभिनिवेश है। यह पूर्वजन्म के अनुभव से होता है। मरने का भय मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग सभी को बराबर रहता है।
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